मेरी माँ और लॉक डाउन।
रोज़ सुबह के तीन बजे ही उठ जाती है मेरी माँ।
घर को स्वर्ग बनाने की मशक्कत में मेरी माँ।
मवेशियों के लिए चारा,सानी,पानी करते!
पाँच बजे सबके लिए चाय बना लेती है मेरी माँ।
लेकर चार चुस्कियाँ रसोई आँगन को करती पवित्र!
फिर कमरे बिस्तर पखारकर साँस लेती मेरी माँ।
देश भर के गाँव में आठ बजे नहाती कपड़े धोती!
और फिर मंदिर में पूजा करने जाती मेरी माँ।
भगवान भी तो उसी के हिस्से में आते हैं सारे।
उनकी सेवा कर भोग लगाते ग्यारह बजा लेती मेरी माँ।
तब तक कोई सूचित करता चूहे दौड़ रहे हैं पेट में!
सुनते ही अन्नपूर्णा बन सबको खाना खिलाती मेरी माँ।
खुद को खाने का वक़्त तीन बजे मिलता है!
कभी किसी से कोई शिक़ायत नही करती मेरी माँ।
पलभर आराम फिर पाँच बजते ही फिर से वही!
सुबह से शाम तक घड़ी की सुई सी घूमती मेरी माँ।
सासु माँ के ताने देवर जी के उलाहनों के बीच!
पति की नोंक-झोंक से तमतमा जाती मेरी माँ।
मन को ठेस लगे तो छुपके अकेले में रोती है!
हाथ से छूटे आईने सी बिखरी बिखरी मेरी माँ।
बिखरी हुई हर किंच को चुन चुन कर बीनती,
गाँव या शहर की प्रत्येक ममत्व भरी मेरी माँ।
घर की लक्ष्मी प्रकृति तो कोई इसे माया कहता है!
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