चाँदनी आज रूठी है क्यों चाँद से
ये अंधेरा फिज़ाओ में जोरों से है
धड़कनें बढ़ रहीं नींद भी है नही
ख्वाब भी रूठ बैठे मेरी आंख से !
कुछ तो हुआ इन हवाओं को भी
रूठ कर के यहां आज बहने लगीं
टूटकर शाख से कितने पत्ते गिरे
ये पतझड़ है मुझसे यूं कहने लगी !
नफरतों का बबंडर भी मिट जाएगा
ये पतझड़ भी जल्दी निपट जाएगा
मुझको उम्मीद है तुम भरोसा रखो
ऋतु बसंती में दामन लिपट जाएगा !
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