Tuesday, May 19, 2020

मैं ( मंथन)

मैं तो शब्दों को तीर बनाता गया।
अपनों के दिल में ही चुभाता गया।

इंसान हूँ सभी बेजुबां की नज़र में!
मैं उन्हें बस जानवर बताता गया।

बाँधकर परिंदे ख़ूब ली वाह वाही!
भूख लगी तो उनको चबाता गया।

जीव जीवस्य भोजनम् पढ़ लिया!
बिन समझे इसे ही भुनाता गया।

देता रहा क़ानून की दुहाई अक़्सर!
संविधान का मख़ौल उड़ाता गया।

मैं ज़र ज़ोरू ज़मीन की लड़ाई में!
मुद्दतों से अब तक रक्त बहाता गया।

आधुनिकता का फ़ितूर पाल कर!
विरासतों को क़हर दिलाता गया।

विज्ञान के विमान में बैठ भरी उड़ान!
गाड़ी ज़मीन की शौक़ में छुड़ाता गया।

भाजी,तरकारी, दूध-दही ख़ूब खाए!
पैकेट में बंद कर ज़हर मिलाता गया।

जिम,कोचिंग, ट्यूशन भी ख़ूब लिए!
ज्ञान की मौलिकता को भुलाता गया।

दौलत शौहरत के लिए भटकता है पंछी!
जब भी मोड़ मिला शॉर्टकट बनाता गया।

जान पर बन आई ख़ुद के तो रोता है "पाठक"!
पहले क्यों तू निर्दोषों को रुलाता गया।
🙏

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