Saturday, April 23, 2022

भावों की मुट्ठी।

 हम भावों की मुट्ठी केवल
अनुभावों के हित खोलेंगे।
अपनी चौखट के अंदर से
आँखों आँखों में बोलेंगे।

ना लांघे प्रेम देहरी को!
बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे।
हम एहसासों के कांटे पे
विश्वास आपका तोलेंगे।

कोई अनुबन्ध नहीं होगा
कोई प्रतिबंध न जोड़ेंगे।
हम मर्यादित अनुसंगी हैं।
बेशक़ परिपाठी तोड़ेंगे।

©दिव्यांशु पाठक

Friday, February 25, 2022

बसन्त ऋतु

1. भारत की कृषि आधारित जीवनशैली दुनिया की प्राचीनतम व्यवस्थाओं में से एक है।विश्व के अधिकांश कृषि विद्वान अन्न उत्पादन एवं पशुपालन का प्रारंभ 8000 ई.पूर्व मानते हैं।रूसी विद्वान वेविलोव ने 1951 में कृषि उद्भव के आठ स्थल चिन्हित किए जिनमें से एक भारत भी है।आज भी लगभग 58 प्रतिशत आबादी अपना जीवन यापन करने के लिए इसी पर निर्भर है।बढ़िया फ़सल के लिए किसान बदलते मौसम पर निर्भर रहते हैं।उनकी आशावादिता इस बदलाव को उत्सव के रूप में सहेज लेती है।झुलसाने वाले ग्रीष्मकाल में लगने वाले मेले हों या चौमासे (बर्षा ऋतु) में तीज त्योहार हम शरद महोत्सव मनाकर कंपाने वाली सर्दियों का स्वागत भी बड़े धूमधाम से करते हैं।इन उत्सवों के साथ किसान की बोई गई मेहनत जब फूल बनकर हवाओं को सुगन्धित करने के साथ फलने लगती है तो बसन्त आ जाता है।बसन्त अपने साथ लाता है बेतहाशा उम्मीदें।बस इन उम्मीदों के पूरा होने के उपलक्ष्य में बसन्त मनाया जाता है। जब किसान की बोई गई मेहनत फूल बनकर हवा को सुगन्धित करती है तो पौधे फलने लगते हैं।ऐसा लगता है वे प्रकृति के सम्मान में झुक गए हों।
बेरियों के कच्चे बेर ( ग़रीब का सेव ) मीठा होने लगता है।छाया में सुखाए गए सिंघाड़े का आटा बनाकर रख लिया जाता है।ताजा और मिठास से भरा दही बनाने लगते हैं।नर्म और रस भरे गन्ने का अलग ही स्वाद इन दिनों आता है।गाजर मूली मटर की नई आवक से पोषण बेहतर हो जाता है।आपको लगेगा ये सारी चीजें तो चाहे जब उपलब्ध हो जाती हैं तो सुनो भले ही हम जेनेटिक मोडिफाइड सब्जियाँ या फल कभी भी प्राप्त कर लें लेकिन जो ऋत्विक' स्वाद होता है वह केवल तभी आता है जब उनका मौसम हो।

2. भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि वे ऋतुओं में बसन्त हैं।वे इन दिनों राधा जी और उनकी सखियों संग रास रचाते हैं।इन्हीं दिनों में उन्हें मोहन' के नाम से पुकारा जाता है।वे प्रेम और पराक्रम दोनो के देवता हैं।कवियों ने भी इसे ऋतुराज कहा है।प्राकृतिक सौंदर्य इन दिनों चरम पर होता है।फूल पूरी तरह खिल कर फल में बदल जाते हैं।मन हर्षित रहता है।ज्ञान की देवी के रूप में हम सृष्टि का साक्षात्कार करते हैं।शिक्षा कौशल कला साहित्य जगत से जुड़े लोग ही नहीं किसान और संत भी माता सरस्वती की वंदना करते हैं।बसन्त को प्रेम और आकर्षण के देवता कामदेव और रति के पुत्र के रूप में भी जाना जाता है।बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिए किया गया उपक्रम 'बसन्त बांधना' कहलाता है।हम सब कामना करते हैं कि जीवन में बसन्त बना रहे। बसन्त भगवान शिव से भी जुड़ा है।एक ऐसा योगी जो जीवन के भौतिक स्वरूप से परे है।अकेला रहता है।वैरागी शिव के जीवन में जब बसन्त आता है तो वे विवाह बंधन में बंधते है।इसलिए महाशिवरात्रि भी बसन्त ऋतु में ही मनाई जाती है।शिव को शक्ति मिलने का यह समय कितना महत्वपूर्ण होगा?विचार कीजिए।

3. बसन्त जीवन के हर आयाम को नई दिशा देने का समय है।
विद्या,भक्ति और शक्ति की प्राप्ति में पहली सीढ़ी है।
इन दिनों में आसमान साफ़ रहता है।
कभी पुरवाई तो कभी पछुआ पवन चलती है।
कोयल गाती है और वृक्ष झूमते नज़र आते हैं।
दृष्टि की गहराई तक फूल ही फूल और
साँसों की सहराई तक उनकी महक़
मादकता का अद्भुद आनंद प्रदान करती है।
पीले रंग की अधिकता मन को शान्त
और चित्त को एकाग्रता प्रदान करती है।
हृदय में धार्मिकता बढ़ती है।
जीवन को गति सूर्य से मिलती है।
उनके उदय होने के साथ ही
हमें एक दिन और मिल जाता है।
जब वे डूब जाते हैं तो अपना दिया हुआ
एक दिन ले भी जाते हैं।
जीवन के इस लेन देन में
कुछ अगर पास रह जाता है तो
वह हमारा किया धरा।
किए धरे में संतुलन लाने के लिए
हर साल बसन्त बांधा जाता है।
आओ हम भी 'बसन्त बांधें' बसन्त बांधना
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भले ही हमने जीवन जीने के आधुनिक तौर तरीकों को इज़ाद कर लिया है।समाज में बड़े बदलाव हुए हैं।बदलाव को विकास के रूप में देख कर हम ख़ुश होते हैं।लेकिन वास्तविकता में यह बदलाव बंटवारा है।फ़िलहाल हम अपनी जातियों को ही समाज का दर्जा देते हैं।संस्कृति के नाम पर हर एक समुदाय के पास अपने अपने तरीक़े हैं।पहनावे से लेकर खानपान और रहन-सहन सब कुछ संस्कृति से जोड़ कर चलते हैं।हम पश्चिम से ग्रहण करते हैं।बाहरी जीवनशैली को अपनाने में हिचक महसूस नहीं करते।ग्रहण करना अच्छी बात है लेकिन ग्रहण कर अपनी जीवनशैली और संस्कृति को ग्रहण लगाना भी ठीक नहीं।हमारी जड़ें चार आश्रमों से जुड़ी हुई हैं।जीवन के दो महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं 1. भौतिक 2. आध्यात्मिक दोनों का विकास और बीच का संतुलन बनाना ही 'बसन्त बांधना' कहलाता है।प्रेम भक्ति और शक्ति के अर्जन से जुड़ा हुआ ऋतुराज नव सृजन का मुहूर्त है। एक बहुत ही प्यारा क़िस्सा है--- हिमालय की बर्फ़ पिघली और जल के रूप में प्रवाहित होने लगी।भगवान शिव जो कि वहाँ के स्वामी है और ज़्यादातर समाधिस्थ रहते हैं उनकी समाधि खुल गई।जब उनकी दृष्टि घाटियों पर गई तो देखा कि बहुत सुंदर सुंदर फूल खिले हैं।उनकी महक़ से हिमालय झूम रहा है।बादलों की धुंध के छंट जाने से वहाँ की ज़मीन गौर वर्ण की दिख रही थी।एक हवा का झोंका आया जो उनको छू गया हवाओं का आलिंगन करके शिव अचानक से बोले 'गौरी' ये तुम हो!

4. गौरी' के ज़हन में आते ही डमरू स्वतः ही बजने लगा।हवा गाने लगी और शिव मुग्ध होकर नाचने लगे।वे सब कुछ भूल गए उन्हें याद रहा तो केवल गौरी' उनकी तल्लीनता से शब्द रूप रस गन्ध और स्पर्श की अनुभूति जाती रही वे कौन हैं भूल गए।जगत पिता सब भूल रहे हों तो प्रकृति का विकास क्रम बाधित होने लगा।तीनों लोक स्थिर होने लगे समय चक्र थमने लगा।इंद्र जो कि जगत संचालन का कार्यभार लिए हैं चिंता ग्रस्त होकर ब्रह्मा जी के पास दौड़े।प्रभु ये क्या हो रहा है सबकुछ स्थिर और थम रहा है बचाओ!ब्रह्मा जी स्वयं कुछ नहीं समझ पा रहे थे।वे शिव को नृत्य करने से रोक भी नहीं सकते थे तो देवताओं के साथ विष्णु लोक पहुँचे और श्री हरि विष्णु जी को योगनिद्रा से जगाया और बोले कुछ उपाय कीजिए प्रभु शिव नृत्य में मग्न हो सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर रहे हैं।समय की गति रुक रही है।श्री विष्णु वोले प्रभु वे शिव हैं उन्हें कैसे रोका जा सकता है?ब्रह्मा जी बोले कुछ उपाय कीजिए श्री हरि। भगवान विष्णु सभी देवगणों को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर जा पहुँचे वहाँ हवाओं में गुंजित गौरी' का घोष सुनकर आश्चर्य में पड़ गए।'गौरी' के नाम की अनुभूति इतनी मनोरम है तो साथ कैसा होगा?'' विष्णु दीर्घ स्वर में बोले गौरी' के नाम की अनुभूति इतनी मनोरम है तो साथ कैसा होगा! सभी देवगणों ने इसे बार बार दोहराया।अचानक शिव नृत्य करना बन्द कर दिए और शान्त हो कर अपने आसन पर बैठ गए। देवगणों ने उनकी जय जयकार की। सभी एक साथ बोले गौरी' के नाम की अनुभूति इतनी मनोरम है तो साथ कैसा होगा!
शिव शान्त बैठे मुस्कुरा रहे थे।ब्रह्मा जी बोले "गौरी के नाम की अनुभूति इतनी मनोरम है तो साथ कैसा होगा! " शिव बोले प्रजापति और प्रजापालक समस्त देवगणों के साथ कहना क्या चाहते हो स्पष्ट करें? मुस्कुराकर विष्णु बोले प्रभु समय आ गया है अब आप अपना विवाह करें और गौरी को गृहस्वामिनी बनालें। शिव मुस्कुरा उठे चारो ओर हर्ष और आनंद बहने लगा सभी देवताओं ने उनकी  खुली जटाओं को बांधा और एक स्वर में बोले बसन्त बंध गया और प्रसन्न होकर अपने अपने लोक चले गए।
आगे आपको मालूम है शिव का विवाह हुआ और वे महादेव बन गए।जिस तिथि को विवाह हुआ वह महाशिवरात्रि के रूप में हम आजतक मना रहे हैं।

5. पार्वती भगवान शिव को विवाह के लिए मना रहीं थी।वे इस प्रयास ( तपस्या ) में इतना लीन हुईं कि स्वास्थ्य बिगड़ गया और वे काली पड़ गईं।नारद जी ने कैलाश पर्वत पर जाकर सूचना दी तो शिव दौड़े गए और उन्हें औषधि देकर ठीक किया।शिव जो कि सृष्टि के सबसे पुराने वैद्य हैं।पार्वती के गौरी' बनने का श्रेय उन्होंने 'माघी-पूर्णिमा' को दिया और विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।आने वाले पन्द्रह दिनों को वैवाहिक परम्पराओं और रीति नीति के लिए चुने गए।

©दिव्यांशु पाठक
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Tuesday, February 22, 2022

राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ 13

 मिहिर भोज (836- 889 ई.)
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रामभद्र जो कि कन्नौज के राजा नागभट्ट द्वितीय का उत्तराधिकारी था के पुत्र भोज' ने 836 ई. में वहाँ का सिंहासन लिया और गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य को पुनः संगठित किया।चंदेल राजाओं को पराजित कर बुंदेलखंड जीता।दौलतपुर लेख से पता चला कि 843 ई. में भोज ने पुनः मण्डोर पर अपना अधिकार किया।राजपूताने के चौहान और गुहिल सामन्तों के रूप में कार्य करने लगे।हरियाणा,पंजाब, काठियावाड़ तथा मध्य भारत के बड़े भू भाग पर उसका शासन रहा। अवंती प्रदेश को लेकर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय से भोज की लड़ाइयों में दोनो पक्षो की जय पराजय होती रही।निसंदेह भोज अपने वंश के साथ भरतीय इतिहास के प्रतापी शासकों में से एक थे।उनके पराक्रम से आतंकित हो मुसलमानों ने दक्षिण अथवा पूर्व में अपना राज्य विस्तार करने की हिम्मत नहीं दिखाई।उन्होंने बड़े साम्राज्य की स्थापना की और वे 'मिहिर-भोज' कहलाये। भारतीय राजाओं की विशेषता रही है कि वे जाति व्यवस्था से सदैव मुक्त रहे हैं वे अपने कुल और वंश परम्पराओं के साथ राष्ट्र रक्षक के रूप में स्वयं को पाते हैं।उन्हें क्षत्रिय कहलाना पसंद है।वे क्षात्र धर्म का पालन करने वाले हैं।इसलिये हमें उनको क्षत्रिय ही रहने देना चाहिए जो कि उनके सम्मान के लिए बहुत ही जरूरी है।यदि हम उनको 250 साल पुरानी जातिगत व्यवस्था में ढालने का काम करेंगे तो यह उनके सम्मान को धूमिल करने जैसा है।कट्टरता और जातिवाद को बढ़ावा देना अच्छी बात नहीं।हाल ही में 'मिहिर-भोज' को लेकर विवाद हुआ उन्हें जातिगत समीकरण में सेट करने के प्रयास किए जा रहे हैं।वे गुर्जर हैं या राजपूत सबने अपनी अपनी दलीलें दीं जो कि राजा भोज के कार्यो और ख्याति को संकुचित करने के अलावा कुछ और तो नहीं कर पाएँगी।
©दिव्यांशु पाठक
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Wednesday, May 12, 2021

मन्नतों की कोई जैसे बारात है।

मन्नतों की कोई जैसे बारात है।
हर-तरफ़ देखो खुशियों की बरसात है।

ईद के चाँद की चांदनी में सनम।
भीग कर आज चन्दन हुआ मेरा तन।
तर बतर हो गया खुश्बुओं से जहाँ..
मेरा रंगने  लगा  तेरी  चाहत में मन।
घिर गया बादलों से भी दिल का गगन.
हर-तरफ़ देखो खुशियों की बरसात है।

मन्नतों की कोई जैसे बारात है।

इश्क़ की रागिनी गा रही है हवा।
मोहब्बत के सुर भी मिलाए फ़िजा।
तुम मिले तो महकती हैं तनहाइयाँ
झूमती गाती फिरती हैं परछाइयाँ।

अब न रखना कोई फ़ासला दरमियाँ!
मेरी चाहता का देना मुझे तुम सिला।
रोशनी से यूँ जीवन भी भर जाएगा!
मोहब्बत का बन जाएगा काफ़िला।

ये ख़ुदा की कोई मुझको सौग़ात है।
हर-तरफ़ देखो खुशियों की बरसात है।
:
©दिव्यांशु  पाठक

सैरे-अदम ( संसार का तमाशा )

सैरे-अदम = संसार का तमाशा

वह जाने से पहले ख़बर भी नहीं देते ।
जो कहते हैं कि  अलविदा  न  कहना।

तुम हो तो ये साँसें हैं ख़ुश्बू है प्यार है!
तुम नहीं तो  जहाँ में  मुझे नहीं रहना।

ये तन्हाई की वफ़ा क़ाबिले तारीफ़ है!
बस इसे कभी मुझसे ज़ुदा नहीं होना।

'पंछी' ये सब तो महज़ सैरे-अदम है!
यहाँ कभी कोई किसी का नहीं होना।

माँ की मोहब्बत।

माँ की मोहब्बत लफ़्ज़ों में आ नहीं सकती!
ये रूह उनकी सीखों को भुला नहीं सकती।

जिसके आँचल में हमको जीना आया है।
मेरी भूल आदर्शों को हिला नहीं सकती।

किसी ने सच ही कहा है कि 'माँ' ख़ुदा है।
और कोई ताक़त इंसां बना नहीं सकती।

इन आँखों में तेरी ममता तैरती रहती है।
इसलिए यूँ पलकें आँसू ला नहीं सकती।

जिसके सर पे उसकी माँ का आशीर्वाद हो।
कोई मुश्किल उसको यूँ सता नहीं सकती।

क़द्र करो उसकी 'माँ' ही सृष्टि का वरदान है।
'पंछी' हर कोई उसकी जगह पा नहीं सकती।
©दिव्यांशु पाठक

तुम ही मेरा संसार हो।


बरसों से जो मैंने किया
तुम वो मेरा इंतज़ार हो।
टूटा नहीं तोड़े से जो  
तुम वो  मेरा  इक़रार हो।

न जाने कितने ग्रीष्म गुज़रे 
और सावन भी जले?
झुलसे हुए स्वप्नों को लेकर 
पतझड़ों में हम चले।

उम्मीद थी बरसेंगे बादल 
भीग जाएगी धरा यह।
खिल उठेंगे  पुष्प फिर से  
सुप्त से जो हो गए । 

अँगड़ाई लेकर यह समां 
एहसास तेरा दे रहा ।
शोर धड़कनें कर रहीं 
मन मुग्ध मेरा हो रहा।

फिर से फ़िज़ाओं में मुझे 
तेरा ही आभास हो।
है जतन मिलने का यह 
या कोई अभ्यास हो।

तुमसे ही जीवन है मेरा 
और तुम ही मेरा प्यार हो।
हर ख़ुशी तुमसे ही तो 
तुम ही मेरा संसार हो॥
:
©दिव्यांशु पाठक

Wednesday, April 28, 2021

प्रथम वैदिक सेनानी (भारत का स्वतंत्रता संग्राम 1845 ई. से 30 अक्टूबर 1883)

प्रथम वैदिक सेनानी 
(भारत का स्वतंत्रता संग्राम 1845 ई. से 30 अक्टूबर 1883)
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पृष्ठभूमि

1500 से 1000 ईसा पूर्व
🔻
सदियों पहले इस धरती पर
कलरव खुशियों का होता था।
उगता था सूरज ज्ञान लिए-
चंद्रमा प्रेम मय होता था।

विद्वान और विदुषी रहते-
नित् वेद पाठ भी होता था।
आदर्श सभ्यता थी अपनी!
जग विश्व गुरु भी कहता था।

🔻 पदाक्रांत भारत ( 1800 ई. से 1900 ई.) 

हर तरफ़ निराशा के बादल 
थे नफ़रत के तूफ़ान चले-
बचपन बैठा था अंधकार में
तो नारी की क्या बात भले।

पथभ्रष्ट हुई जीवनशैली-
थी जाति पात फल फूल रही,
भारत माता के आँगन में-
अँग्रेजी तूती बोल रही।
मद्य मस्त फिरंगी से आँचल में
इक घाव नया नित होता था।
हर तरफ़ मचा था शोर कोई-
नित नित् ताण्डव सा होता था।
था पाखण्डों में धर्म फंसा-
शंकर मरघट में सोता था।

अधिकार किसानों के छीने
व्यापार महाजन से बीने-
कर लगा लगा कर नए-नए
राजाओं के दल-बल भी चीन्हे,
ख़ौफ-ज़दा हर भारतीय-
बस मन ही मन में रोता था।
🔻
हर तरफ़ मचा था शोर कोई
नित नित ताण्डव सा होता था।
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जब पीड़ा मन की फूट पड़ी
आशा सबकी सब टूट पड़ी
तब अंधकार के आँगन से
एक ज्योति पुंज बाहर निकला-
फिर दावानल में कूद पड़ा

♦️1824 ई.-1883 ई.♦️

वो युवा ढूंढता सत्य फिरे-
उसकी थी शास्वत अभिलाषा
भूखें और भ्रष्ट विचारों को
कर दया दयानंद की आशा।

फिर मूल मूल ने जो पाया
वेदों को उसने अपनाया
आओ लौटो वेदों की ओर
वह वेद पताका लहराया।

विद्या और घोर अविद्या का
वह भेद खोलने निकला था।
आडंबर मत मतवान्तर की
वह पोल खोलने निकला था।

नारी शिक्षा पर जोर दिया
आश्रम का शुद्ध प्रयोग किया
वह बालक और विधवाओं का
निर्वैर हितेषी होता था।

अभिशाप दासता बतलाया,
वह 'स्वदेश' शब्द को भी लाया
ये प्रथम संकल्प उसका ही था
सपना 'स्वराज्य' का दिखलाया।

यथायोग्य व्यवहार करो सब,-
अक्सर ऐसा कहते थे।
कुछ ग़लत अगर दिख जाए तो-
फिर वे चुप नहीं रहते थे।

लेकर के वेद पताका को-
गुरु-आश्रम से बाहर निकले।
करना प्रचार जिस सत्य का था!
उसका प्रसार करने निकले।

♦️1865 ई. ( राजस्थान में प्रवेश )♦️
🔻
प्रथम धौलपुर में ठहरे
तोड़ना चाहते थे पहरे
किल्विस की ध्वनि में मोहित से-
थे लोग यहाँ के तब बहरे।
जब सुनी नहीं स्वामी जी की !
ऋषिवर थोड़े से क्रुद्ध हुए-
फिर मूरख कह वे निकल लिए-
लेकिन थोड़े से क्षुब्ध हुए।
वेदों का ज्ञान समझने को-
जाने मन क्यों नहीं होता था?
हर तरफ़ मचा था शोर कोई
नित नित ताण्डव सा होता था।
था पाखण्डों में धर्म फंसा!
शंकर मरघट में सोता था।

व्यथित हृदय वह सत्य पथिक
कुछ दिन में जयपुर पहुँच गए।
वहाँ शैव और वैष्णव लड़ते-
वह दोनों का मुह नोंच गए।
अचरौल के राजा पर इसका-
गहरा प्रभाव इस तरह हुआ-
मूर्ति-पूजा छोड़ी उसने और मदिरा का त्याग किया।
सफ़ल हुआ उपदेश ऋषि का-
फिर पुष्कर को कूँच किए-
शिवलिंग स्थापन का विरोध कर-
मन्दिर सेवक को ज्ञान दिए।
सत्य ज्ञान का सेवन कर के-
जन जन नतमस्तक होता था।
हर तरफ़ मचा था शोर कोई,
नित नित ताण्डव सा होता था।
था पाखण्डों में धर्म फंसा!
शंकर मरघट में सोता था।

♦️( नबम्बर 1866 - 26 अक्टूबर 1874 )♦️
🔻
अजमेर रुके जब ऋषिराज,
तब कर्नल ब्रुक से बात चली
प्रतिबंधित गौ-वध करना है!
ये बात ब्रुक को लगी भली।
पर वायसराय ही कर सकता,
सो एक पाती उसको भी लिख दी।
♦️
जयपुर आए फिर स्वामी जी
उत्तर भारत की तरफ़ चले-
प्रयाग आगरा और काशी,
लालची बालची सण्डों को-
कर्मकाण्ड पाखण्डों को-
नकली पण्डित और पण्डों को,
स्वामीजी ने तब फ़टकारा
देकर प्रमाण वेदों के सब-
उनके झूठ को ललकारा।
स्वामी जी की ललकारों में-
एहसास क्रांति का होता था।
हर तरफ़ मचा था शोर कोई,
नित नित ताण्डव सा होता था।
था पाखण्डों में धर्म फंसा-
शंकर मरघट में सोता था।

♦️( 1874 ई. से 1878 ई. बम्बई में )♦️
🔻
कलकत्ता मिर्जापुर जाकर-
वैदिक प्रकाश को फैलाया..
आग्रह किया अनुयायियों ने
बम्बई में आओ स्वामी जी-
हम भी तो भटके भूले हैं-
हमको भी राह दिखाओ जी।
तब स्वामीजी बम्बई पहुँचे-
स्थापित आर्य समाज किया।
उद्देश्य बता कर वो अपना-
फिर से धोरों में आ पहुँचे।
इस देव दूत को एक पल भी
आराम क़ुबूल न होता था।
हर तरफ़ मचा था शोर कोई,
नित नित ताण्डव सा होता था।
था पाखण्डों में धर्म फंसा-
शंकर मरघट में सोता था।

♦️( मार्च 1881 - 31 मार्च 1883 ई. )♦️

'वैदिक धर्म सभा' उनकी
जयपुर में आर्य समाज हुई।
चित्तोड़ गए फिर स्वामी जी
सज्जन सिंह जी से भेंट हुई।
धर्म और कर्तव्य परायण-
लोग वहाँ पर रहते थे।
तीरथ सा गढ़ है भारत का-
स्वामीजी भी कहते थे।
तब ही जाकर के उदयपुर-
'परोपकारिणी सभा' बनाई थी।
उपकार किया जन सेवक बन-
अपकार नहीं कोई होता था।
हर तरफ़ मचा था शोर कोई ,
नित नित ताण्डव सा होता था।
था पाखण्डों में धर्म फंसा-
शंकर मरघट में सोता था।

♦️( 31 मार्च 1883 से 30 अक्टूबर 1883 ई. सांय 6 बजे तक )♦️
🔻
सर प्रताप जोधाणा में ऋषिवर को आमंत्रित किए।
स्वागत कर उपदेश सुना-
और वैदिक संदेशा लिए।
राजन् के बारे में पूछा-
उनके बारे में पता किए।
जब पता लगा स्वामी जी को,
मोहित जसवन्त कंचना पर-
दुत्कारा उसको बतलाया -
राज धर्म भी सिखलाया।
तुम सिंह पुत्र होकर के भी
ऐसा अनर्थ क्यों करते हो।
हे राजन् थोड़ी लाज करो-
इस कुतिया पर क्यों मरते हो।
स्वामीजी के वचन सुने राजा-
पानी -पानी हो गया वहीं-
चिढ़कर कर 'नन्नी' ने भोजन में,
चाकर से ज़हर दिलाया था।
सीसा पीसा था दूध में भी-
फिर उनको वह पिलवाया था।
इस तरह उदित वह आर्य श्रेष्ठ,
अस्त हो चुका सूर्य बना।
वैदिकता की किरणें लेकिन-
संसार सदन में छोड़ गया।
♦️♦️♦️♦️♦️
इक सत्य कथन की कटुता ने,
योगी के प्राण परख डाले--
निज हत्यारे को माफ़ किया!
पर अपने प्राण ही तज डाले।
 
हे दयानन्द तुझको प्रणाम- मन नित नतमस्तक होता है।
हर तरफ़ मचा फिर शोर वही
फिर आज ज़रूरत आपकी है।
कब आओगे तुम ऋषिराज?
अब इंतज़ार नहीं होता है।
♦️♦️♦️♦️♦️♦️♦️
© दिव्यांशु पाठक
       अध्यापन

Wednesday, December 2, 2020

लोकतंत्र में जन-आन्दोलनों का क्या महत्व है?

'विश्वगुरु' बनने का ख़्वाब देखती
मेरे देश की नई पीढ़ी को दिशा देने के लिए
अभी बड़े सुधार की ज़रूरत है।
हमें उनको बताना होगा कि-
शान्ति, न्याय,और क़ानून स्थापित
करने के लिए हमें पहले उनका
उलंघन करना बंद कर देना चाहिए।
हमें नैतिक मूल्यों की समझ के साथ
बच्चों और महिलाओं को
सुरक्षित रखना होगा।
यह ज़िम्मेदारी सरकार के साथ
आपकी अपनी भी है।
जन-आन्दोलनों को
सकारात्मक और स्वास्थ्य क़दम के रूप में
लोकतंत्र का हिस्सा बनना है विरोधी नहीं। #राजस्थानपत्रिका के द्वारा पूछा गया प्रश्न- लोकतंत्र में जन-आन्दोलनों का क्या महत्व है?
:
मेरी अभिव्यक्ति के रूप में पेश है मेरा ज़बाब----
:
जन-आन्दोलन को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि अपने हितों को लेकर देश सज़ग होकर शासन और प्रशासन के सामने अपना मत रखने खड़ा हो गया है।
:
लोकतंत्र में जन-आन्दोलनों का क्या महत्व है?
:
उम्मीदों से भरी सत्ता में जब राजनीतिक-आर्थिक नीतियां किसी वर्ग या जन-साधारण के हितों का हनन करती हैं तो वह वर्ग एकजुट होकर अपना मत रखता है।
जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी गई सरकार के निरंकुश होकर निर्णय लेने पर अंकुश लगाने के लिए भी लोकतंत्र में जन-आन्दोलनों का बड़ा महत्व है।
पिछले दो दशकों में देश ने कई बड़े जन-आंदोलन देखे और कई बेहतरीन और आवश्यक बदलाब भी हुए।इनका सीधा लाभ देश की अवाम को भी मिला।

हमने भूख, बेरोजगारी,अशिक्षा, भ्रष्टाचार के साथ लड़ते हुए निरंतर विकास का रास्ता चुना।दुर्भाग्य से जन-आन्दोलनों के स्वरूप भी बदलते देखे।इस बदलाब ने देश की अवाम को आपस में बाँटने का काम किया।आन्दोलन महज़ उपद्रव बनकर रह गए।देश को बड़ी 'जन-धन' की हानि भी उठानी पड़ी।बेशक़ आन्दोलन के नाम पर समाज को लाभ हुआ पर कहीं न कहीं राजनीतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से मानवाधिकार और लोकतंत्र का दुरुपयोग भी।

जन-आन्दोलनों को मैं अवाम के विकास के लिए किए गए प्रयासों में सकारात्मक और स्वास्थ्य क़दम मानता हूँ।लेकिन इसके नाम पर जो स्वेच्छाचार होता है वह ठीक नहीं।

'विश्वगुरु' बनने का ख़्वाब देखती मेरे देश की नई पीढ़ी को दिशा देने के लिए अभी बड़े सुधार की ज़रूरत है।हमें उनको बताना होगा कि- शान्ति, न्याय,और क़ानून स्थापित करने के लिए हमें उनका उलंघन करना बंद करना होगा।नैतिक मूल्यों की समझ के साथ बच्चों और महिलाओं को सुरक्षित रखना होगा।
:
आपको मेरा ज़बाब कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया देकर बतायें बहुत बहुत स्वागत है।
#पाठकपुराण की ओर से #सुप्रभातम #yqdidi #yqhindi #yqbaba 

भावों की मुट्ठी।

 हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...