शिक्षा के अधिकारों को लेकर देश में सबसे पहले 18 मार्च 1910 में ब्रिटिश विधान परिषद के समक्ष निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का प्रस्ताव गोपाल कृष्ण गोखले जी ने रखा था जो उस समय ख़ारिज कर दिया गया था।
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इसके बाद आज़ाद भारत के संविधान में इसके लिए कई प्रावधान और संशोधन हुए जो -आगे चल कर निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 के रूप में पारित हुआ और 1 अप्रैल 2010 से लागू हो गया। इसे हम आज (RTE) 06- 14 बर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य रूप से विद्यालय से जोड़ कर पढ़ाया जा रहा है।
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मैं तो बस यह बताना चाहता हूँ कि यह शिक्षा के अधिकार का मूल विचार मनुस्मृति के एक श्लोक के सूत्र में निहित है--
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कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणाम।।
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5 वर्ष के बाद कन्याओं और कुमारों अर्थात लड़कीयों और लड़कों को घर में न रख कर उन्हें विद्याध्यन के लिए अनिवार्य रूप से भेज देना चाहिए। इसके लिए राजनियम (सरकार) की व्यवस्था जातिनियम के अनुरुप होनी चाहिए।
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😀
जातिनियम- मतलब कन्याओं के लिए अलग और कुमारों के लिए अलग पाठशाला की व्यवस्था हो।
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अब इसमें गलत क्या है ?
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"जातिनियम"- मनुस्मृति के दौर में समाज जातिगत आधार पर विभाजित न होकर वर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलता था। उसी अनुरूप शिक्षा का विधान था। शिल्पकार, स्वर्णकार, कृषक, सैनिक,व्यापारीयों, पशुपालकों आदि को उनकी रुचि अनुरूप शिक्षित किया जाता था। लेकिन आज़ादी के बाद जब बचे कुचे ग्रंथों और स्मृतियों को टटोला गया तो उनमें सदियों की गुलामी और अज्ञान के बढ़ जाने से अर्थ का अनर्थ कर दिए। फलस्वरूप हम शास्त्रों से दूर होकर श्वेच्छाचार के शिकार हो गए। समय ने भी पलटी ली और तकनीकी विकास हुआ। जंगल खेत मिटते गए पेड़ कटते गए कंक्रीट बिछती गई और आज हम विकास के चरम पर इतराने में लगे थे कि- समय ने फिर करवट बदल ली।
इस बार बहुत कुछ सीखने को मिला आयुर्वेद और अपनी पुरातन परंपराओं को पहचाना। नमस्ते का प्रचलन बढ़ा। छुआ छूत का महत्व समझ आया।और प्रकृति के सानिध्य की उपयोगिता को स्थान मिला। भविष्य के लिए बेहतर संकेत हो सकते हैं क्योंकि हमारे देश की आपदा को अवसर में बदलने की क्षमता अद्भुद है।
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बात को यहीं विराम देता हूँ जय श्री कृष्ण-----
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