Sunday, November 29, 2020

राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 12

जब तक प्रतिहारों में साहसी-पराक्रमी शासक उत्पन्न होते रहे उनका राज्य विस्तार भी हुआ।शुरुआती दौर में मण्डोर के प्रतिहार- नागभट्ट,शिलुक,बाउक शक्तिशाली रहे।उज्जैन और कन्नौज के प्रतिहारों में भी कई प्रतिभासंपन्न योद्धा हुए।समूचे राजस्थान पर अधिकार कर उन्होंने- गुहिल,राठौड़,चौहान तथा भाटियों को सामन्त बनाकर राज्य किया।जैसे ही इनकी केंद्रीय शक्ति कमज़ोर हुई तो सामन्तों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए।जिस राजस्थान की मिट्टी में उनका उदय हुआ,उसी राजस्थान को वे हमेशा के लिए अपना न रख सके। :
डॉ गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि -
जोधपुर के शिलालेखों से यह प्रमाणित होता है कि प्रतिहारों का अधिवासन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वित्तीय चरण में हो चुका था।उस युग में राजस्थान के पश्चिमी भाग को "गुर्जरत्रा" कहते थे इसलिए प्रतिहारों को "गुर्जर-प्रतिहार" या गूजर सम्बोधन मिला। विद्वानों के अनुसार इनकी राजधानी जो कि कर्नल टॉड के अनुसार 'पीलोभोलो' लिखा है वो आधुनिक भीनमाल या बाड़मेर हो सकता है।
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यूँ तो भगवान लाल इन्द्रजी ने इनको कुषाणों के समय बाहर से आए विदेशी माना है।बम्बई-गजेटियर ने भी इनको विदेशी माना है।डॉ भण्डारकर भी इनको एक जाति-विशेष के रूप में मानते हैं।
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डॉ ओझा इनको विदेशी नहीं मानते और प्रतिहारों का शासन 'गुर्जरत्रा' क्षेत्र में होने से इनको गुर्जर-प्रतिहार कहा है।
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मुहणोत नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया और लिखा है कि राजस्थान ही नहीं अपितु गुजरात,काठियावाड़,मध्यभारत एवं बिहार के भी बहुत से क्षेत्र इनके अधीन रहे।
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ग्वालियर के अभिलेख में प्रतिहारों को क्षत्रिय और सौमित्र यानी लक्ष्मण के वंशज और कवि राजशेखर ने भी प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल को 'रघुकुल-तिलक' कहा है।
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प्रतिहारों की 26 शाखाओं में से एक मण्डोर के सबसे प्राचीन और प्रमुख हैं।इनके बारे में हमें जोधपुर शिलालेख जो कि 836 ई. में प्राप्त हुआ मिलती है।इसी तरह घटियाले से भी दो शिलालेख प्राप्त हुए जो कि 837 ई. और 861 ई. के हैं।इन शिलालेखों के अनुसार-
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प्रतिहारों के गुरु जो कि हरिश्चंद्र के नाम से जाने जाते हैं उनकी दो पत्नियाँ थी एक क्षत्राणी दूसरी ब्राह्मणी।ब्राह्मणी से उत्पन्न पुत्र ब्राह्मण-प्रतिहार कहलाये और क्षत्राणी पत्नी भद्रा से उत्पन्न क्षत्रिय-प्रतिहार हुए।भद्रा से चार पुत्र हुए-
भोग-भट्ट,कदक,रज्जिल और दह।चारो भाइयों ने बड़े होकर मांडव्यपुर ( मण्डोर ) को जीत लिया और उसकी सुरक्षा के लिए प्राचीरों का निर्माण कराया।
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ओझा के अनुसार हरिश्चंद्र का समय छठी शताब्दी के आसपास का होना चाहिए।उसके वंशजों में नागभट्ट प्रथम जो रज्जिल का पोता था बड़ा पराक्रमी हुआ।उसने अपने राज्य का विस्तार कर मण्डोर से 60 मील दूर मेड़ता को अपनी राजधानी बनाया।नागभट्ट के उत्तराधिकारियों के बारे में तो जानकारी नहीं है किन्तु उसकी दशवीं पीढ़ी में "शीलुक" हुआ जिसने वल्ल मण्डल के भाटी राजा देवराज को हराकर अपना राज्य बढ़ाया।शीलुक कई भाषाओं का जानकार और कवि था।उसकी दो पत्नियाँ थीं भाटी रानी से 'बाउक' और दूसरी रानी से 'कक्कुक' पैदा हुए।इसी बाउक ने 837 ई.में प्रशस्ति उत्कीर्ण करवा कर अपने वंश की जानकारी दी थी।इसके बाद कक्कुक ने भी कई शिलालेखों को बनवाया और एक अच्छे राजा के रूप में पहचान पाई।
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प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि बारहवीं सदी के मध्य मण्डोर के आसपास चौहानों का अधिकार हो गया था परन्तु किले पर प्रतिहारों की इंदा नामक शाखा का अधिकार रहा।अन्य प्रतिहार वंशियों ने शायद चौहानो के सामन्त बनकर शासन किया हो।1395 ई. में इन्दा प्रतिहारों ने अपने राजा हम्मीर से  परेशान होकर 'राठौड़' वीरम के पुत्र चूंडा को मण्डोर दहेज में दे दिया और इस प्रकार प्रतिहारों का प्रभाव समाप्त होकर धीरे धीरे सम्पूर्ण मारवाड़ राठौड़ों का हो गया।
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क्रमशः---12
आज के लिए इतना ही काफ़ी है फिर मिलेंगे #पाठकपुराण के साथ #राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1  2 लेकर तब तक आप इसका आनंद लीजिये। बहुत बहुत स्वागतम।
#yqdidi #yqhindi #yqbaba 

Thursday, November 19, 2020

राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 11

"जैत्रसिंह"
मेवाड़ के शौर्य का एक और पन्ना।
(1213 - 1252 ई.)
मेवाड़ की गद्दी पर जैत्रसिंह के बैठते ही जालौर में चौहान राज्य के संस्थापक कीर्तिपाल से गुहिल राजा सामन्तसिंह की पराजय का बदला लेने के लिए अपने समकालीन नाडौल के चौहान राजा उदयसिंह पर आक्रमण कर दिया।उदयसिंह ने अपने राज्य को बचाने के लिए अपनी पौत्री रुपादेवी का विवाह जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ कर मेवाड़ और नाडौल में मैत्री स्थापित की।जैत्रसिंह ने मालवा के परमार राजा देवपाल को हराकर अपना अधिकार जमाया और गुजरात के सोलंकियों का मैत्री प्रस्ताव ठुकरा दिया।इधर दिल्ली में तुर्कों की जड़ें मज़बूत हो गईं तो "इल्तुतमिश" ने मेवाड़ को अधिकार में लेने के लिए आक्रमण कर दिया। जब अजमेर के चौहानों की शक्ति का पतन हो गया तो राजस्थान के विस्तृत भू-भाग पर तुर्को ने लूट ख़सूट शुरू कर दी थी।मेवाड़ अभी भी मोहम्मद गौरी और कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमणों से बचा हुआ था।
1222 से 1229 ई. के मध्य 'इल्तुतमिश' ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया।जय सिंह सूरि ने अपने "हम्मीरमदमर्दन" में लिखा है कि मुस्लिम सेना मेवाड़ की राजधानी 'नागदा' तक पहुँच गई। उसने आसपास के कस्बों,गाँवों को बर्बाद कर दिया और कई भवनों को नष्ट कर सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी गई।
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जब युद्ध के मैदान में जैत्रसिंह ने सीधे न कूदकर छापामार युद्ध नीति का उपयोग किया तो इल्तुतमिश की सेना के पैर उखड़ गए और मुसलमान पदाक्रांता भाग खड़े हुए लेकिन उससे पहले वे नागदा को नष्ट कर चुके थे। इसकी पुष्टि चीरवा के शिलालेख से होती है।
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डॉ दशरथ शर्मा कहते हैं कि - जैत्रसिंह ने तुर्कों को पीछे खदेड़ दिया परन्तु मेवाड़ की राजधानी नागदा को बड़ी हानि उठानी पड़ी।
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नागदा के नष्ट हो जाने के बाद ही गुहिलों ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया और फिर आने वाली कई सदियों तक उसे यह गौरव प्राप्त हुआ।
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इल्तुतमिश के इस अभियान ने दिल्ली के लिए भावी विजय-योजनाओं के मार्ग खोल दिये थे।
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आबू शिलालेख से पता चलता है कि जैत्रसिंह के साथ सिंध के शासक "नसीरुद्दीन कुबाचा" से भी युद्ध हुआ जो मोहम्मद गौरी का एक प्रनुख ग़ुलाम और सेनानायक रहा।उसके सेना नायक खवास खां को गुजरात अभियान के दौरान खदेड़ दिया।
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दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन ने अपने भाई जलालुद्दीन को कन्नौज से दिल्ली बुलाया।जलालुद्दीन को लगा कि उसकी हत्या की जा सकती है तो वह अपने साथियों सहित चित्तोड़ के आसपास की पहाड़ियों में छुप गया।सुल्तान ने उनको ढूंढने के लिये बहुत प्रयास किये किन्तु आठ महीने की खोजबीन के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगा फ़रिश्ते ने इस समय को 1248 ई. के आसपास का बताया है। तारीख़े नासिरी का लेखक मिनहाज लिखता है कि जब उलूग ख़ाँ ( बलबन )को सुल्तान ने नाइब पद से हटाकर नागौर का इक्ता बना दिया तो उसने रणथम्भौर, बूंदी तथा चित्तौड़ तक लूटमार कर धनार्जन किया।राजस्थान के शिलालेख भी इस की पुष्टि करते हैं कि राजपूतों के कड़े प्रतिरोध के कारण बलबन को विशेष सफलता नहीं मिली।
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डॉ ओझा कहते हैं कि- 
दिल्ली के ग़ुलाम सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और बलवान राजा जैत्रसिंह हुआ जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके विरोधियों ने भी की है।
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जैत्रसिंह ने ही चित्तौड़ किले की मज़बूत प्राचीरों का निर्माण कराया।विद्वान और कलाकारों को आश्रय देकर मेवाड़ की ख्याति को बढ़ाया। 1253 ई. में जैत्रसिंह की मृत्यु हो गई और उनका उत्तराधिकारी तेजसिंह बना।तेजसिंह के समय का अंतिम शिलालेख वि. स. - 1324 ( 1267 ई. ) का मिला और उसके उत्तराधिकारी समरसिंह का प्रथम शिलालेख वि. स. - 1330 ( 1273 ई. ) का है। तेज सिंह ने 1267 से 1273 ई. के मध्य राज्य किया।
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तेजसिंह ने वीरधवल जो कि 1243 ई. के आसपास त्रिभुवनपाल से गुजरात का राज्य छीनकर मेवाड़ की ओर बढ़ना चाहता था पर जैत्रसिंह ने उसके साथ मैत्री करने से इनक़ार कर दिया था से सामना हुआ गुजरात की सेना भाग खड़ी हुई इस युद्ध में मेवाड़ की जनधन हानि उठानी पड़ी। बलबन ने भी 1253 - 1254  ई. में हमला किया था किंतु उसे पराजय का सामना करना पड़ा और फिर कभी लौट कर नहीं आया।जैत्रसिंह की तरह तेजसिंह भी प्रतापी था।
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तेज सिंह की मृत्यु कैसे हुई ये तो पता नहीं पर कुम्भलगढ़ प्रशस्ति,आबू शिलालेख,चीरवे के साहित्यिक कृतियों के आधार पर उसका उत्तराधिकारी माना जाता है वह भी अपने पिता और पितामह की तरह शक्तिशाली और वीर था। उसने 1299 ई. के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दो सेनानायकों उलूग ख़ाँ और नुसरत ख़ाँ ने बनास नदी को पार कर मडोसा के किले पर अधिकार कर लिया था।उस समय उलूग ख़ाँ सिंध से जैसलमेर के रास्ते चित्तौड़ आया था।"कान्हड़देव प्रबन्ध" इस घटना के प्रमाण देती है।जैन ग्रंथ तीर्थकल्प और रणकपुर मन्दिर शिलालेख यह बताते हैं कि गुहिल नरेश समरसिंह ने अलाउद्दीन को हराकर चित्तौड़ की रक्षा की। और मुस्लिम सेना नायकों से दण्ड लेकर उन्हें आगे जाने दिया।
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चीरवे के लेख में समरसिंह को शत्रुओं का संहार करने में सिंह के समान अत्यंत शुर बताया है।
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समरसिंह के समय पद्मसिंह,केलसिंह,कल्हण,कर्मसिंह जैसे शिल्पकारों के साथ ही रत्नप्रभ सूरि,पार्श्वचन्द्र,भाव शंकर,वेद शर्मा,शुभचन्द्र जैसे विद्वान मौजूद रहे।
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आगे राजस्थान के इतिहास में क्या हुआ ये आपको अगली पोस्ट में बतायेंगे आज के लिए इतना ही काफी है।बने रहिये 🌹🌻🙏😊 #पाठकपुराण के साथ #राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1  1 और पढ़ते रहिए अपने गौरवशाली अतीत के पन्नों को।
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Thursday, November 12, 2020

राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ-10

"बप्पा के बाद" 
भोज ने मेवाड़ में शान्ति बनाए रखी,महेंद्र की हत्या कर भीलों ने उनकी ज़मीन छीन ली।नाग केवल नागदा के आसपास अपना अधिकार बनाये रखा।शिलादित्य अधिक योग्य निकला उसने भीलों को हराकर अपनी भूमि बापस ली।अपराजित ने शिलादित्य का साथ दिया और गुहिलों का वर्चस्व बढाया।कालभोज के बारे में जानकारी नहीं ऐसा माना जाता है कि यशोवर्मन के सैन्य अभियानों में मदद की थी।खुम्मान को मुस्लिम आक्रमणकारियों को खदेड़ा किन्तु वे कौन थे ये विवादास्पद है।मत्तट से महायक तक का समय राष्ट्रकूटों,प्रतिहारों के साथ उलझने में गया और वे सामन्त बन कर रहे। 877 ई. से 926 ई. के बीच खुम्मान तृतीय ने गुहिल राजवंश को पुनः प्रतिष्ठित किया।भरतभट्ट ने इसे बनाये रखा।अल्लट ने देवपाल परमार को हराकर गुहिलों की सैन्य शक्ति को बढ़ाया।नरवाहन ने भी मेवाड़ को सुदृढ़ किया।
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शक्तिकुमार के शासनकाल में परमार नरेश मुंज ने चित्तोड़ के दुर्ग और आसपास के क्षेत्र को जीत लिया।
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परमारों को चालुक्यों ने हराकर चित्तोड़ पर अधिकार किया।अम्बाप्रसाद को चौहानों का सामने करते समय वाक्पतिराज से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त हुई।उसके बाद गुहिलों में कोई ऐसा शासक नहीं हुआ जो उनकी प्रतिष्ठा को बापस लाता।वैरि सिंह और उसके उत्तराधिकारी विजय सिंह ने जरूर आहड़ क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाए रखा।
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1171 ई. में सामन्त सिंह गद्दी पर बैठ जिसने 1174 ई. में चालुक्य नरेश अजयपाल को हराकर मेवाड़ को ख्याति दिलाई।कुछ बरसों बाद ही उसे जालौर के चौहान कीर्तिपाल ( कीतू ) के हाथों पराजित होकर भागना पड़ा।
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सामन्त सिंह के छोटे भाई कुमर सिंह ने चालुक्यों और सिसोदिया सरदार भुवनपाल की सहायता से कीर्तिपाल को हराकर चित्तोड़ जीत लिया।कुमरपाल सिंह के बाद पद्म सिंह और उसके बाद जैत्र सिंह गद्दी पर बैठा।
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1213 ई. से 1252 ई. तक कि बात करेंगे अगली पोस्ट पर बहुत बहुत स्वागतम आपका बने रहिये....
#पाठकपुराण के साथ #राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1 पढ़ते रहिए। #yqdidi #yqbaba #yqhindi #divyansupathak 
सुप्रभातम साथियो आपका दिन शुभ हो।🌹🗡🗡🌹

राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 09

"बप्पा-रावल" ( क्रमशः-02 )

जब उस युवा लड़को को नागदा का सामन्त बना दिया गया तो वहाँ के जो पुराने सामन्त थे विद्रोह करने लगे उसी दौरान किसी विदेशी आक्रमण की सूचना मिली अन्य सामन्त इस अवसर का फ़ायदा उठाना चाहते थे नव सीखिए सामन्त को सेनापति बनाकर युद्ध में भेज दिया।मैदान में जाकर नए जोश के साथ सेनापति ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया और विजय प्राप्त की साथ ही उन विरोधी सामन्तों को भी समझाया तब किसी ने उनको सम्बोधित किया भई- ये है सबका बाप और वही बाप आगे चलकर 'बप्पा' हो गया। ऐसा सुना गया है कि मोहम्मद-बिन-क़ासिम की फ़ौज लेकर यज़ीद ने सिंध प्रदेश को जीत लिया और अपने क्षेत्र को विस्तार देने के लिए उसने चित्तोड़ पर आक्रमण कर दिया तब चित्तोड़ की रक्षा करने के लिए बप्पा ने उनसे युद्ध किया और जब मुस्लिम सेना भाग खड़ी हुई तो उनका पीछा करते करते अफगानिस्तान के ग़जनी शहर में जाकर अपना झण्डा गाढ़ दिया। तो वहाँ के शासक ने अपनी बेटी का ब्याह बप्पा के साथ कर दिया।इसी विजय के क्रम को आगे बढ़ाते हुए बप्पा ने ईरान,इराक़, तुर्क जैसे कई राज्य जीते और अनेक विवाह किए।कहते हैं कि बप्पा की मुस्लिम पत्नियों से 32 पुत्र हुए जिन्हें इतिहास में "नौशेरा पठान" कहा जाता है।बप्पा की हिन्दू पत्नियों से 98 सन्तान हुई। बप्पा ने अपने समय में टॉड के अनुसार-अजमेर,कोटा,सौराष्ट्र,गुजरात के अतिरिक्त हूण सरदार और जांगल प्रदेश के राजाओं को एकत्रित कर विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटा दी थी।
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इन बातों में कितनी सच्चाई है ये तो शोध का विषय है किन्तु बप्पा रावल की वीरता और पराक्रम को भी राजस्थान के इतिहास में सदैव याद किया जाएगा।
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कर्नल टॉड का गणित कहता है कि- वल्लभीपुर के पतन के 190 साल बाद बप्पा का जन्म हुआ। वल्लभी संवत विक्रमी संवत के 375 वर्ष पीछे चला इसलिए- 205+ 375 = 580 वि.स. अथवा 524 ई. में वल्लभी का पतन हुआ।यदि 190 साल बाद बप्पा का जन्म हुआ तो - 580+190=770 वि.स.का अनुमान है। इस समय चित्तोड़ का राजा मान-मोरी मौजूद था।डॉ गोपीनाथ कहते हैं कि वल्लभी का विनाश वि.स.- 826 ( 769 ई. ) में हुआ।इसमें अगर 190 जोड़ें तो समय बहुत आगे निकल जाता है जो ठीक नहीं।श्यामलदास के अनुसार बप्पक ने 734ई.में चित्तोड़ का किला जीता इसलिए उसका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानना अधिक ठीक रहेगा।भण्डारकर भी इसी समय को ठीक मानते हैं।ओझा जी बापा की विजय 713 ई. के बाद सन्यास का समय 753ई. मानते हैं।जबकि डॉ गोपीनाथ शर्मा 727 ई. और 753 ई.को निर्मूल मानते हैं।उन्होंने सातवीं शताब्दी के तृतीय चरण के आसपास का समय ही उचित माना है।
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एक जनश्रुति के अनुसार- बप्पा ने चित्तोड़ के मौर्यवंशी राजा मान-मोरी को परास्त कर मेवाड़ क्षेत्र में एक स्वतंत्र राजवंश की नींव रखी जो "गुहिल" के नाम से विख्यात हुआ।
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बप्पा सौ साल तक जीवित रहे और नागदा में ही उनका देहान्त हुआ आज भी उनकी समाधि बप्पा-रावल के नाम से प्रसिद्ध है।
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बप्पा के उत्तराधिकारीयों के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती कुछ नाम जो शर्मा जी ने दिए उनमें- भोज,महेंद्र,नाग,शिलादित्य,अपराजित,कालभोज,खुमान प्रथम,मत्तट,भरतभट्ट,सिंह,खुमान द्वितीय, महायक,खुमान तृतीय, भरतभट्ट द्वितीय, अल्लट, नरवाहन,शक्तिकुमार, अम्बाप्रसाद,उसके बाद 10 शासक ऐसे हुए जिनकी कोई जानकारी नहीं है।
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आज के लिए इतना ही आगे आपको बताऐंगे कि बप्पा के वंशजों ने क्या किया।
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अजमेर से प्राप्त सिक्के पर यज्ञ वेदी पर शिवलिंग के सामने बैठा नंदी और दण्डवत करते इंसान के साथ खड़ी गाय सिक्के के दूसरे पहलू में सूर्य और कुछ ऐसा ही साबित करता है कि बप्पा शिवभक्त थे और गौ-ब्राह्मण की सेवा सुरक्षा करने के लिए कृत संकल्प भी।
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 08

"बापा-रावल"
ईडर के राजा नागादित्य की भीलों ने हत्या कर राज्य छीन लिया तो उनकी पत्नी अपने तीन साल के बच्चे को किसी भी तरह बचाकर बड़नगरा में रहने वाले उनके कुल पुरोहित नागर ब्राह्मण जिन्होंने गुहदत्त की रक्षा की थी के वंशज "वंशधर" जी के पास ले गई।जब ब्राह्मणों को भीलों से खतरा हुआ तो वे बच्चे को लेकर भाण्डेर दुर्ग के जंगल में "नागदा" के समीप 'पराशर' नामक स्थान पर लेजाकर निवास करने लगे।इसी जंगल में गाय चराने वाले एक ग्वाले को 'बप्पा' के रूप में जाना गया। एक मज़ेदार बात ये है कि अभी तक कोई इतिहासकार ये पता नहीं लगा पाया है कि "बप्पा" किसी राजा का नाम था या 'उपाधि' और अगर यह उपाधि थी तो किसकी?
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कनर्ल टॉड उसे 'शील' कहते हैं।श्यामलदास जी उन्हें शील का पोता 'महेंद्र' बताते हैं।डॉ. डी. आर.भण्डारकर उनको 'खुम्माँण' श्री ओझा जी ने उनको 'कालभोज' लिखा है।
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नाम कुछ भी रहा हो लेकिन 'बप्पा'- मेवाड़ के इतिहास का एक शानदार पृष्ठ है।जन श्रुतियों के आधार पर आपको उनसे मिलवाते है-----
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वंशधर रोज की तरह अपनी गायों का दूध निकाल रहे थे।कपिला गाय के नीचे बैठे तो उसके थनों में दूध ही नहीं था।उनको लगा बछड़े ने पी लिया होगा कोई बात नहीं लेकिन जब यह घटना रोज घटने लगी तो उनको आश्चर्य हुआ और अपने बेटे को बुलाकर कहा कि गाय को कहाँ दुहा लाते हो कई दिन से यह दूध नहीं दे रही अगले दिन गाय चराने जाओ तो ध्यान रखना।
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जब अगले दिन ग्वाला अपनी सारी गायों को पराशर के जंगल में ले गया जब शाम का वक़्त हुआ तो उसने देखा कि कपिला झुण्ड से अलग होकर पहाड़ी की दूसरी तरफ़ जा रही है।वह भी पीछे पीछे चल दिए।गाय एक गुफ़ा में पहुँची और वहाँ स्थित शिवलिंग पर अपने दूध की धार छोड़ने लगी।शिवलिंग के सामने 'हारीत' ऋषि तपस्या कर रहे थे उनको भी दुग्ध प्रदान किया।ग्वाले बालक को न क्रोध आया न गाय को कभी रोका जब 'हारीत' की तपस्या पूर्ण हुई तो सामने एक लड़के को देखा और जब उनको पता चला कि इस लड़के के गुण तो राजा बनने लायक हैं तो उसे मेवाड़ का राजा बनने का आशीर्वाद दिया।नैणसी ने लिखा है कि - 'हारीत' ऋषि ने उस लड़के को 15 करोड़ रुपये के मूल्य की स्वर्ण मुद्राएं दी और सेना बना कर मोरियों से राज्य लेने के लिए कहा। उस ग्वाले ने ऐसा ही किया और चित्तोड़ का राजा बन गया।
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एक जनश्रुति है कि -  नागदा के सोलंकी राजा की कन्या अपनी सखियों के साथ 'पराशर' जंगल में खेलने गईं थी।उनको झूला झूलना था किन्तु रस्सी उनके पास नहीं थी जब वह इधर उधर रस्सी ढूंढ रही थी तो गाय चराता एक लड़का दिखाई दिया।राकुमारी ने उससे कहा कि म्हारे लिए रस्सी ला दे छोरे झूला झुलणो है।ग्वाले ने कहा ठीक है ला दूँगा पर तन्ने म्हारे संग ब्याह रचानो पड़ैगो।बचपन की अठखेलियों में जब वह रस्सी ले आये तो उनके साथ खेलने लगे।राजकुमारी की सहेलियों ने दोनों की गाँठ बांध दी और आम के पेड़ के चारो ओर घूम कर सात फेरे करवा दिए।सखियों ने मंगल गीत भी गाए।शाम को थककर सभी बच्चे घर चले गये और इस घटना को भूल गए कुछ बरसों बाद जब राजकुमारी बड़ी हुई तो शादी के लिए कुण्डली और हस्त रेखा दिखाई गई।राजा के राजपुरोहित ने राजकुमारी का हाथ देखा तो दंग रह गया और बोला कि इस कन्या का विवाह हो चुका है अब नहीं होगा।यह सुनकर राजा के पैरों तले ज़मीन न रही।पता लगवाया गया तो बात खुल गई।राजा अपमान न करे इसलिए ग्वाला भाग कर पहाड़ों में छुप गया।लेकिन राजा ने उनको दहेज में आधा नागदा देकर सामन्त बना दिया।
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हालांकि यह बातें कल्पनिक लगती हैं किन्तु कहीं न कहीं ग्वाले के 'बप्पा' बनने का रहस्य भी इनमें ही छुपा है।
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आज के लिए इतना ही काफ़ी है अगली पोस्ट में हम आपको 'बप्पा' की वीरता के किस्से सुनाएंगे.........
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बप्पा रावल के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गज़नी पर भगवा ध्वज फहराया।
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जय भारत जय राजस्थान।
#पाठकपुराण के साथ पढ़ते रहिये #राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1  और आनंद लीजिये हमारे गौरव और शान का। महसूस करिये....
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 07

💠 'अतीत के पन्ने' 💠
राजस्थान के गौरवशाली अतीत का श्रेय गुहिल वंश को जाता है।इन्हें गुहिलोत,गोमिल,गोहित्य,गोहिल के रूप में भी पुकारा गया है।गुहिल जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय माने गए।उनकी पहचान को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं किन्तु महाराणा कुम्भा ने ढेर सारी छान-बीन के बाद अपने वंश के लिए स्पष्ट रूप से ब्राह्मण वंशीय होना अंकित करवाया था।बारहवीं शताब्दी के पहले किसी भी लेखक,कवि,या साहित्यकार ने उन्हें सूर्यवंशी नहीं लिखा।सूर्यवंशी लिखने की परिपाटी "चित्तोड़" के 1278 ई. के लेख के आसपास अपनाई हुई लगती है।
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💠💠💠💠💠💠💠💠 टॉड ने विवरण दिया कि- 524 ई.में वल्लभी का राजा शिलादित्य विदेशी आक्रमणकारियों से युद्ध करते समय परिवार सहित मारा गया उस दौरान उनकी गर्भवती धर्मपत्नी पुष्पावती 'अम्बाभवानी' तीर्थ पर गई थी जो बच गई और गुहदत्त (गोह) को जन्म दिया।
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गुहिल को जन्म देने के बाद रानी पुष्पावती अपने पुत्र "विजयादित्य" ब्राह्मण को देकर स्वयं 'सती' हो गई।
गुहिल ने युवा होते ही ईडर के भील राजा को मारकर उसका राज्य लिया।गुहिलों की सत्ता का प्रारंभिक केंद्र "नागदा" था जो कालांतर में 'चित्तौड़' हो गया।
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डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि- 1869 ई.में 'आगरा' के पास 2 हजार चाँदी और 9 ताँबे के सिक्के मिले जो यह प्रमाणित करते हैं कि गुहिलों का एक बड़ा और स्वतंत्र राज्य था।यह सिक्के रोशन लाल सांभर के संग्रह में रखे हुए हैं।डॉ. ओझा गुहिलों के समय को 566 ई.के आसपास का मानते हैं।
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गुहिलों के उत्तराधिकारियों के बारे में सटीक तो अभी तक पता नहीं चला पर कुछ साक्ष्य बताते हैं कि- शील,अपराजित,भर्त्तभट्ट,अल्लट, नरवाहन, शक्तिकुमार,विजयसिंह,और नागादित्य आदि उनके उत्तराधिकारी थे।
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कर्नल टॉड ही लिखता है कि- गुहिलों की आठवीं पीढ़ी में नागादित्य हुआ जिसे भीलों ने मारकर अपना ईडर राज्य बापस ले लिया किन्तु आगे चलकर नागादित्य का पुत्र "बाप्पा" एक शानदार योद्धा निकला जिसे इतिहास- बप्पा,बप्पक,बाप्प,बापा-रावल के नाम से पहचानता है।
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"बापा रावल" के बारे में आगे लिखेंगे आज के लिए इतना ही काफी है बने रहिये #पाठकपुराण के साथ #राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1 देखिए पढ़िए आप सभी का स्वागत है।
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 06

'राजपूत' ( अतीत के झरोखे से-02 )

अग्नि-पुराण के अनुसार- चन्द्रवंशी कृष्ण और अर्जुन तथा सूर्यवंशी राम और लव-कुश के वंशज राजपूत थे।स्वयं 'राजपूत' भी इस कथन को सहर्ष स्वीकार करते हैं।इसी आधार पर श्री गहलोत ने भी लिखा है कि- "वर्तमान राजपूतों के राजवंश वैदिक और पौराणिक काल के सूर्य व चन्द्रवंशी क्षत्रियों की सन्तान हैं।ये न तो विदेशी हैं और न ही अनार्यों के वंशज।जैसा कि कुछ यूरोपीयन लेखकों ने अनुमान लगाया।डॉ दशरथ शर्मा भी लिखते हैं कि राजपूत सूर्य और चन्द्रवंशी थे। दशवीं शताब्दी में चरणों के साहित्य और इतिहास लेखन में राजपूतों को सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी बताया है।
1274 ई. का शिलालेख जो चित्तौड़गढ़,
1285 ई. का शिलालेख जो अंकलेश्वर से प्राप्त हुए विशेष महत्व के हैं।
इससे पहले तेजपाल मन्दिर से प्राप्त-
1230 ई. के शिलालेख में राजा धूम्रपाल को सूर्यवंशी लिखा है।
सीकर जिले में हर्षनाथ मन्दिर से प्राप्त शिलालेख में 'चौहानों' को सूर्यवंशी लिखा है।
महर्षि वेदव्यास ने भी सूर्य-पुत्र वैवस्वतमनु से लेकर रामचंद्र तक सत्तावन राजाओं के नाम का उल्लेख किया है।
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एक मत यह भी है कि भारत की अधिकांश जातियाँ बाहर से आईं और फिर यहीं की होकर रह गईं। इसी के आधार पर कुछ भारतीय और कुछ विदेशी विद्वानों ने 'राजपूतों' को विदेशी मान लिया है।
कर्नल टॉड ने लिखा है कि - "राजपूत शक अथवा सिथियन जाति के वंशज हैं।"
टॉड तर्क देते हैं कि विश्व के सभी धर्म मध्य एशिया से उदय हुए और प्रथम पुरुष को किसी ने 'सुमेरु',किसी ने बेकस और किसी ने मनु कहा।
"इन बातों से सिद्ध होता है कि विश्व के सभी मनुष्यों का मूल स्थान एक ही था और वहीं से लोग पूर्व की ओर गए।
"यूनानी,शक,हूण, यूची (कुषाण) सभी विदेशी जातियाँ मध्य एशिया से आई थीं इसलिए राजपूत भी मध्य एशिया से आई हुई विदेशी जाति है।
टॉड महोदय ने राजपूतों को विदेशी शक व सिथियन प्रमाणित करने के लिए उनकी रीति रिवाजों को भी परस्पर जोड़ दिया जैसे- अश्व पूजा, अश्वमेध, अस्त्र पूजा,उत्तेजक सूरा के प्रति अनुराग,अंधविश्वास, भाटों की प्रथा समाज में स्त्रियों के स्थान के साथ साथ देवताओं को रक्त और सूरा अर्पित करना।
"खून बहाने में प्रसन्नता अनुभव करने वाले राजपूत शान्ति-प्रिय आर्यों की सन्तान कैसे हो सकते हैं?
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प्रसिद्ध इतिहासकार वी.ऐ. स्मिथ ने लिखा है कि आठवीं या नवीं शताब्दी में राजपूत यकायक प्रकट हुए और इनको हुणों की सन्तान बता दिया। उनका कहना है कि विदेशी गुर्जरों ने गुजरात को जीतकर उसका नाम अपने नाम पर रख लिया क्योंकि उससे पहले यह क्षेत्र "लाट" कहलाता था। उसी प्रकार हुणों ने भारतीय परम्पराओं को अपनाकर राजस्थान को अपना घर बना लिया।
आज गुर्जर राज्य तो नहीं है पर जाति शेष अवश्य रह गई।जब राज्य नष्ट हो गए तो हुणों ने खुद को 'राजपूत' बनालिया।
इन्हीं बातों के आधार पर स्मिथ महोदय ने निष्कर्ष निकाला है कि - "हूण जाति ही विशेषकर राजपूताने और पंजाब में स्थायी रूप से आबाद हुई जो अधिकांश गुर्जर थे और गुर्जर कहलाए।"
विलियम क्रुक ने भी राजपूतों के कई वंशजों का उद्भव शक या कुषाणों के आक्रमण कालीन बताया।
डॉ भंडारकर ने भी चारो अग्निकुलों को गुर्जर सिद्ध करने का प्रयास किया है।उन्होंने अपने मत के समर्थन में कहा है कि-राजौर में पाए गए एक अभिलेख में आधुनिक जयपुर के दक्षिण -पूर्व में शासन करने वाले प्रतिहारों की एक गौण शाखा ने अपने आप को गुर्जर कहा है।कन्नौज के प्रतिहारों को राष्ट्रकूटों ने अपने अभिलेखों में तथा अरबों ने अपने यात्रा विवरणों में गुर्जर बताया है। अगर चालुक्य गुर्जर नहीं थे तो गुजरात नाम क्यों रखा?
डॉ.भण्डारकर ने राजपूतों को गुर्जर सिद्ध करने के अनेक तर्क दिए वो कहते हैं कि ये गुर्जर पाँचवी शताब्दी के प्रारम्भ में हुणों के साथ भारत में प्रविष्ट हुए गुर्जर विदेशी थे इसलिए राजपूत भी विदेशी जाति के वंशज हैं।
😂🌻🌺🙏🌸 ग़ज़ब है।
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'राजपूतों' के विदेशी होने के मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।प्रथम तो राजपूतों ने स्वयं को कभी विदेशी नहीं बताया और वह अपनी उत्पत्ति सूर्य व चन्द्र से बताते हैं।
राजपूतों के रीति-रिवाजों को शक या सिथियन के साथ जोड़ना भी अनुचित है क्योंकि उनके रीति-रिवाज़ शक-कुषाणों के आने से पूर्व भी भारत में प्रचलित थे।सूर्य की पूजा और अश्वमेध यज्ञ यहाँ पहले से ज्ञात था।
कर्नल टॉड का यह कथन कि आर्य शान्ति से रहना पसन्द करते थे सत्य है लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि आर्य युद्ध को क्षत्रिय धर्म समझते थे।
श्री वैद्य महोदय ने डॉ भण्डारकर के  कथन का खण्डन कर राजपूतों को आर्यों की सन्तान बताया।उनका कहना है कि कन्नौज के प्रतिहारों ने कभी भी खुद को गुर्जर नहीं बताया। वत्सराज,नागभट्ट जैसे उनके आर्य नाम हैं।उन्होंने अपने अभिलेखों में स्वयं को सूर्यवंशी कहा है।'राजशेखर' ने जो उनके समकालिक था उनको "रघुकुलतिलक" कहा।
किसी जाति को गुर्जर कह देने से यह प्रमाणित नहीं होता है कि वह जाति उत्पत्ति से ही गुर्जर थी।जैसे कि -
"मुसलमान" आक्रमणकारियों को 'यवन' कहा है इसका मतलब यह नहीं कि मुसलमान नस्ल में यूनानी थे।
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'लाट' का नाम गुजरात इसलिए नहीं पड़ा कि वहाँ पर चालुक्यों का शासन स्थापित हो गया वरन् ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाम गुजराती भाषा के आधार पर पड़ा।
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अतः श्री वैद्य महोदय के निष्कर्ष यह प्रमाणित करते हैं कि -----

"राजपूत भारतीय मूल के आर्य और उनके वंशज ही हैं।"
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"राजपूत चाहे जिस रुप में जन्मे हों लेकिन सत्य तो यह है कि इतिहास में उन्होंने वेद और स्मृतियों के साथ महाकाव्य काल के क्षत्रियों की परम्पराओं को बनाये रखा है।
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 05

"राजपूत" ( अतीत के झरोखे से )

'राजपूत' अश्व और अस्त्र की पूजा करते हैं।
मुसलमानों से युद्ध करते समय उन्होंने महाभारत काल के क्षत्रियों के सिद्धांत व नैतिक आचरण अपनाए।वैदिक सभ्यता को बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे।श्री सी.एम वैद्य व श्री ओझा जी ने राजपूतों को वैदिक आर्यों की सन्तान और भारतीय माना है।
'पृथ्वीराज रासो' में कवि चन्द्रवरदाई ने लिखा है कि विश्वामित्र, गौतम,अगस्त्य तथा अन्य ऋषिगण आबू पर्वत पर एक धार्मिक अनुष्ठान कर रहे थे तो दैत्य आकर उनकी यज्ञ में विघ्न डालने लगे।उन दैत्यों को ख़त्म करने के लिए वशिष्ठ मुनि ने यज्ञ से तीन योद्धा उत्पन्न किये - 1.परमार 2. चालुक्य 3. प्रतिहार।
किन्तु जब तीनों का बल कम पड़ा तो चौथा योद्धा 'चौहान' उत्पन्न किया गया तब उसने आशापुरी को अपनी देवी मानकर दैत्यों को मार भगाया। परवर्ती चारण और भाटों ने तो इस उत्पत्ति को सत्य मानकर अपने ग्रंथों में दुहराया है किन्तु इतिहास का कोई भी विद्यार्थी यह मानने को तैयार नहीं होता कि अग्निकुण्ड से मनुष्य रूपी योद्धा पैदा किये जा सकते हैं। श्री जगदीश सिंह गहलोत कहते हैं कि यह - 'पृथ्वीराज रासो' के रचयिता के दिमाग़ की उपज है। अग्निवंशी कोई स्वतंत्र वंश नहीं माना जा सकता।
पाश्चात्य विद्वान विलियम क्रुक ने लिखा है कि- अग्निकुण्ड से तात्पर्य अग्नि द्वारा शुद्धि से है।
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अग्निकुण्ड से उत्पत्ति वाली बात आज के युग में निर्मूल सी है।इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
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कुछ विद्वानों का मानना है कि 'क्षत्रियों' की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई सर्वप्रथम डॉ.भण्डारकर ने राजपूतों की उत्पत्ति किसी विदेशी ब्राह्मण से बताई उसके बाद तो अनेक विद्वान इसे ही सच साबित करने में लगे रहे।
"जोधपुर" के 'प्रतिहार' ब्राह्मण वंश के थे।इनके पूर्वज ब्राह्मण हरिश्चंद्र तथा उनकी पत्नी मादरा की सन्तान थे।
"आबू" के प्रतिहार वशिष्ठ ऋषि की सन्तान थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि 'राजपूत' अपने पुरोहित का गोत्र अपना लेते थे।यह सिद्धांत इसलिए दिया क्योंकि पहले ब्राह्मण भी राजा हुआ करते थे।रावण ब्राह्मण था लंका में राज्य करता था।कहीं कहीं तो ब्राह्मण राजा से भी श्रेष्ठ माने गए मिथिला नरेश जनक और अयोध्या के दशरथ के राज्य में ब्राह्मणों से हाथ जोड़कर विनम्रता से बात की जाती थी।प्राचीन साहित्यिक कृतियों में भी विशेषकर "पिंगलसूत्र कृति" में भी राजपूतों को ब्राह्मण की सन्तान बताया है।
"आधुनिक इतिहासकार डॉ गोपीनाथ शर्मा ने भी मेवाड़ के "गुहिलोतों" को नागर ब्राह्मण 'गुह्येदत्त' का वंशज बताया है।श्री ओझा ने भी इस मत को स्वीकार किया है।मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने भी जयदेव के 'गीतगोविन्द'की टीका में यह स्वीकार किया कि गुहिलोत नागर ब्राह्मण गुह्येदत्त की सन्तान हैं।
डॉ दशरथ शर्मा इस मत का तर्क सहित खण्डन करते हैं और अधिकांश राजपूत भी इसे स्वीकार नहीं करते।
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 04 जातियाँ ( समय के गर्त में और गर्भ में )

जातियाँ ( समय के गर्त में और गर्भ में )
1. राजपूत 🗡🏹

वेद,उपनिषद,स्मृति और हमारे प्राचीन ग्रंथों में 'जाति' को प्राथमिकता नहीं दी गई थी।'राजपूत' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'राजपुत्र' से हुई है।जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया तो उसने भी यहाँ के राजाओं को 'क्षत्रिय' लिखा और कहीं कहीं राजपूत कहा।श्री जगदीश सिंह गहलोत ने लिखा है कि- "मुसलमानों के आक्रमण से पहले यहाँ के राजा 'क्षत्रिय' कहलाते थे।बाद में इनका बल टूट गया तो स्वतंत्र राजा के स्थान पर सामन्त, नरेश बनकर रह गए।इसी समय में ही शासक राजाओं के लिए 'राजपूत' या 'रजपूत' शब्द सम्बोधन के लिए प्रयोग में लिया जाने लगा।आठवी शताब्दी तक इस शब्द का प्रयोग कुलीन क्षत्रियों के लिए किया जाता था।चाणक्य,कालिदास और बाणभट्ट के 'राजपुत्र' मुसलमानों के समय अपने राज्य खो कर 'राजपूत'बन गए। राजपूतों की उत्पत्ति का प्रश्न वैसे तो अभी तक विवादास्पद बना हुआ है फिर भी वे स्वयं को वैदिक आर्यों से जोड़कर सूर्य और चंद्रवंशी बताते हैं।कहीं न कहीं इन दोनों वंशों से उनकी हर एक शाखा जुड़ी हुई मिलती है। "प्रतिहार राजपूत" अपने आप को लक्ष्मण की सन्तति के रूप में सूर्यवंशी बताते हैं। चंदेलों की उत्पत्ति चन्द्रमा और ब्राह्मण गन्धर्व कुमारी से हुई। चालुक्यों को हारीत ऋषि के कमण्डल के जल से हुई। हम्मीर काव्य में चाहमानों को सूर्यवंशी लिखा।इन सब बातों से ये स्पष्ट है कि "राजपूत" वैदिक आर्यों से सम्बंधित हैं।प्रश्न ये है कि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में "राजपूत" शब्द का कैसे और क्यों बढ़ा? इस सम्बंध में प्रसिद्ध विद्वान श्री सी.एम.वैद्य लिखते हैं---
"भारत में बौद्ध धर्म के पश्चात् जाति-व्यवस्था के बंधन धीरे-धीरे दृढ़ होने लगे और इतने दृढ़ हुए कि ये कट्टरता की सीमा तक पहुँच गए। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी सीमा संकुचित करने लगी।"रोटी-बेटी" के सम्बंध के लिए वे ही कुल सम्मलित होते थे जो रक्त सम्बंध में शुद्ध समझे जाते थे। जो क्षत्रिय थे अधिकतर बौद्ध हो गए आर्य परंपराओं से उनका नाता टूट गया।ऐसे परिवारों को बुरी तरह बहिष्कृत किया गया।परिवारों की कुलीनता को निश्चित करना और भी कठिन हो गया।इसका असर ब्राह्मण ,वैश्य, और शूद्र वर्ण पर भी हुआ।इस तरह अपने अपने क्षेत्र तक सीमित हो गए। अतः ये कहा जा सकता है कि जो भारतीय आर्यों में क्षत्रिय थे वे ही सत्ता चले जाने के पश्चात राजपूत हो गए।
🗡🙏😊
कुछ विद्वान राजपूतों को - हूण, शक,सीथियन,गुर्जर और विदेशी जातियों की सन्तान भी मानते हैं!🤔 आज के लिए इतना ही काफ़ी है आगे की चर्चा फिर कभी.....
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क्रमशः ----
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 03

            बंटबारे के बाद हड़प्पा और मोहनजोदड़ो पाकिस्तान का हिस्सा हो गए तो पड़ौसी ने दावा कर दिया कि सबसे प्राचीनतम सभ्यता की नींव उनकी धरती पर पड़ी।जब इसकी भनक भारतीय पुरातत्व विभाग को लगी तो पूर्वी पंजाब,राजस्थान और गुजरात में उत्खनन आरम्भ कर दिया।इसी के फलस्वरूप प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता 'अमलानंद घोष' ने कालीबंगा और ऐसे ही कई टीलों को खोज निकाला।खुदाई कर सिन्धु सभ्यता के समकक्ष ही नहीं वरन उससे भी पुरानी सभ्यता के प्रमाण निकाल कर पाकिस्तान का दम्भ चूर-चूर कर दिया।इस कार्य को व्रजवासी लाल और बालकृष्ण थापर ने जारी रखा।राजस्थान का यह ऐतिहासिक स्थान गंगानगर जिले के सूखी घग्घर ( प्राचीन सरस्वती )नदी के तट पर स्थित है।खुदाई में मिले अवशेषों से ज्ञात हुआ कि यहाँ की सभ्यता और संस्कृति बेहद समृद्ध एवं विकसित थी।दुर्भाग्यवश कुछ प्राकृतिक कारणों से सरस्वती नदी लुप्त हो गई और उसी के साथ एक शानदार सभ्यता का ह्रास हो गया। सरस्वती नदी के लुप्त होने का उल्लेख तो पुराणों में भी मिलता है।एक किवदंती के अनुसार श्रीराम ने जब समुद्र को सुखाने के लिए अग्निवाण खींच लिया तो समुद्र ने क्षमा याचना की लेकिन तीर कमान में बापस जाए ये किसी योद्धा के लिए अशोभनीय था इसलिए समुद्र का एक हिस्सा उससे काट डाला और जिस हिस्से में तीर लगा वहाँ समुद्र का पानी सूख कर शेष रेगिस्तान रह गया।
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डॉ.गोपीनाथ शर्मा कहते हैं कि- "सम्भवतः भूचाल से या कच्छ के रन की रेत से भर जाने से ऐसा हुआ होगा जो समुद्री हवाएँ पहले इस ओर से नमी लाती थीं और वर्षा का कारण बनती थीं वे ही हवाएँ सूखी चलने लगी और कालान्तर में यह भू भाग रेत का समुद्र बन गया।
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#पाठकपुराण के साथ
#राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1 क्रमशः- 03
सुभ अपराह्न साथियो।
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राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ - 02

आहड़ युग का राजस्थानी पशु पालने, भाण्ड बनाने,खिलौने और मकानों के साथ व्यापार और वाणिज्य को भी जानता था।लगभग 6 हजार साल पहले तक राजस्थान की अत्यंत समुन्नत सभ्यता रही थी। कालीबंगा,आहड़,बागौर,रंगमहल, बैराठ,गिलुण्ड, नोह्,गणेश्वर, बालाथल,आदि की खुदाई से पता चला कि राजस्थान में अति प्राचीन "सिन्धु-सरस्वती" सभ्यता पनप चुकी थी।
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#पाठकपुराण के साथ #राजस्थान_के_इतिहास_की_झलकियाँ_1-02
क्रमशः--   

राजस्थान के इतिहास की झलकियाँ -01

हम अपनी स्वाधीनता संस्कृति और प्रेम के लिए प्राणों की आहूति देने वाले लोग हैं। हमारी मिट्टी में सिन्धु सभ्यता से काफ़ी पहले जीवन की हिलोर उठ चुकी थी।
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 कर्नल टॉड लिखते हैं कि - "राजस्थान में कोई भी ऐसा छोटा राज्य नहीं है जिसमें थर्मोपॉली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले जहाँ लियोनीयस जैसा वीर पुरुष पैदा न हुआ हो।"
क्रमशः- अगली कड़ी में लेख को आगे बढ़ाएंगे।
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भावों की मुट्ठी।

 हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...