अगर स्त्री तुम न होती?
तो इस क़ायनात में कोई रंग न होता
ख़ुशी न मिलती न कोई दर्द ही रहता ।
सब कुछ निर्जीव सा बेरंग और बेज़ान होता ।
ज्ञान, श्रृंगार ,रस, निधि,जिज्ञासा,
हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...
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