व्यवहारिकता भूल गए सब
सहनशक्ति को खो बैठे !
पर्व और अब उत्सव सारे
अपने मूल रूप को खो बैठे !
होली के हुड़दंग मिटाकर
गीत गोठ सब खो बैठे !
प्यार भरे दिल सूख गए सब
भाव मनभरे भूल गए सब
जीवन रस को खो बैठे !
यंत्र बने फ़िरते दिखते सब
मूल चेतना खो बैठे !
हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...
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