पलकों में कुछ ख़्वाब सजाकर।
कुछ उम्मीदों के पँख लगाकर।
हम तुम नदी किनारे घूम रहे हैं!
एक दूजे को जान बनाकर।
प्रेमालय में हम दोनों मिलकर,
खुशियों का माथा चूम रहे है।
हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...
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