Thursday, January 30, 2020

प्रेम की व्याकरण

प्रेम पंथ की बनकर किताब
तुम मेरे सामने आती हो !
एक अल्हड़ से मस्त भ्रमर को
तुम पाठक कर जाती हो !!

स्वर व्यंजन के शब्द जाल को
चुपके से यार बिछाती हो !
सन्धी कर खुद हो समास
तुम प्रत्यय मुझे बनाती हो !!

क्रियाविशेषण सर्वनाम सब
तुम उपसर्ग लगाती हो !
महाप्राण का कारक बन
अन्तःस्थ हृदय हो जाती हो !!

इस प्रेमग्रंथ की व्याकरण
पढ़ने में तो सहज है
समझ मुश्किल से आती है !!

तेरा ये अव्ययीभाव स्वरूप
ठगधिकार सा लगता है !
इसकी आत्मनेपद प्रक्रिया
मुझे अपने साथ कभी
हलन्त् सा भी नही लगाती !!

भावकर्म प्रक्रिया बनकर
छन्द बन तो जाता है!

स्वर विचार संयुक्ताक्षर का
ध्वनि विचार जब करता हूँ !
तब धड़कन से धड़कन जुड़कर
सूत्र महेश्वर बनता है !!

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