1.
मैं बृज का एक अल्हड़ लड़का बस प्रेम बांटने निकला हूँ
मैं जीवन के इस पतझड़ में बस बसंत बांटने निकला हूँ !
जिस बिछुड़न की अग्नि को ये शीतलहर भड़का बैठी
मैं मानसरोवर के जल से ये आग बुझाने निकला हूँ !
मैं चंचल सी कुसुमकली बस सुगंध बांटने निकली हूँ
मैं सूने आँगन में उसके उल्लास बांटने निकली हूँ !
पर स्वभाव से उसके कैसे मैं अनभिज्ञ रही अब तक
मैं एक भँवरे पर जाने क्यों ये दाव लगाने निकली हूँ !
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कपकपाती हुई इन हवाओं में तो
मेरे महबूब की स्वांस का जोर है !
फूल की पंखुड़ी में जो था फंस गया
आज उसकी ही धड़कन में शोर है !
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