Thursday, January 30, 2020

तुम

फ़ेरकर आंख तुम रूठ बैठी हो यूं
छिनगई मेरी दुनियां की रंगीनियां
नफ़रतों की हवाएं हैं बहने लगी
बढ़ गयी बादलों में भी वीरानियाँ !

देख कर बादलों की ये वीरानियाँ
शाम तन्हाई में दामन भिगोने लगी
ना सितारे दिखे चाँद भी जा छुपा
रात आकर के आँगन में रोने लगी !

रातरानी उगाई थी गमलों में जो
आज घबराई घबराई मुझको लगी
इन अंधेरो का जबसे है मेला लगा
तबसे तुलसी भी कोने में सोने लगी !

No comments:

Post a Comment

भावों की मुट्ठी।

 हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...