सुनो
तुमसे ही प्रेम करता हूँ मैं
तुमसे ही नाता है नेह का
भावनाएं स्पंदित होती हैं
तुमसे तुम्हारे होने से मेरी
तुझमें ही लिप्त होता हूँ मैं !
तुम भी तो करती हो ना प्रेम
बिल्कुल मेरी तरह मुझसे
निश्वार्थ भाव से निर्लिप्त हो
फ़िर कैसे होता है संताप तुम्हें
कैसे दुःख जाता है तुम्हारा हृदय
सुनो
तुम जिस मुक्त भाव से मुझे मिली थी
मुझे लगा था यात्री हो तुम भी प्रेम पथ की
साथ चलेंगे हाथ पकड़कर एक दूजे का
पर ये क्या ये तो बन गया है बन्धन मोह का
जो कारण होता है शोक और बस क्रोध का
हे "प्रकृते" क्यों करती हो ऐसा हर बार मेरे साथ
मैं तेरे भावों का नही कर पाता हूं सम्मान
हर बार बार बार बस करता हूँ अपमान
तुम जीती हो अपना स्वाभिमान और मैं तज पाता नहीं अभिमान
न जाने कब होगा ? "निर्वाण"
जाने कब होगा ? "निर्वाण" !
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