Saturday, February 29, 2020

मेरी मातृभाषा

फ़ागुन कौ मतवारो मौसम
मन में पँख लगाइ रह्यो है
कितनी दूर रहै तू छोरी
तुझको आज बुलाय रह्यौ है !

जबसे सुनि लई तेरी बोली
मन मेरौ कटराय रह्यौ है !
तेइ मोटी मोटी आँख को भौंरा
मेरी धुक धुक को खटकाय रह्यौ है !

बंसी वारे अब का होगो
कछु मेरी समझ न आइ रह्यौ है
तू राधा कौ तेरी राधे
कछु ऐसौ ही मोय भाय गयौ है !
💕😊#मातृभाषादिवस की हार्दिक शुभकामनाएं आपको ।
घर में बने हुए भोजन का स्वाद बहुत ख़ास होता है ना ठीक उतनी ही ख़ासियत अपनी मातृभाषा की होती है।एक अलग तरह का ही आनंद मिलता है । और इसका एहसास तब होता है जब आप अपने गृहनगर या राज्य से बाहर हों और अचानक कोई आपकी बोली बोलता दिख जाए ।
💕😊
:
मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के मध्य में एक छोटा सा राजस्थान का टुकड़ा मेरे गृहजिले का है ।
यहां की भाषा और बोलियां मिश्रित हैं ...हल्की सी बुंदेली थोडी सी राजस्थानी और पूरी तरह ब्रजभाषा के मेल से हमारी बोली में एक अलग ही मिठास और कड़कपन एक साथ नज़र आता है इसलिए इसे हम खड़ी बोली के रूप में जानते हैं ।
आओ भाषाओं के बारे में कुछ पढ़ते हैं-----
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हमारे देश का प्राचीन नाम आर्यावर्त है इसलिए यहां की भाषाओं को पहले आर्यभाषाओं के रूप में जाना जाता था जो कि 'वैदिक संस्कृत' थी ।
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वैदिक संस्कृत दो भागों में बंट गई ---1.पाली 2. संस्कृत
😊यह पाली भाषा तीन भागों में बंट गई जो हैं-- 1.सौरसेनी,2.मागधी,3. महाराष्ट्री (मराठी)
अब आपको बतादूँ कि यह सौरसेनी भाषा फिर से दो भागों में बंट गई --1. गूजरी,2. सौरसेनी
😊
गूजरी भाषा से ही ---- गुजराती और राजस्थानी भाषा का विकास हुआ है ।
😊
क्योंकि मैं राजस्थानी हूँ तो राजस्थानी की बात करूँगा ।
हमारी राजस्थानी भाषा भी दो भागों में बंट गई-------1.डिंगल (पश्चिमी राजस्थानी), 2. पिंगल (पूर्वी राजस्थानी )
😊
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डिंगल जो कि हमारे राजस्थान के पश्चिमी भाग में बोली जाती है इसका अपना साहित्य है जिसे डिंगल साहित्य या चारण साहित्य के नाम से जाना जाता है ।
चारण पश्चिमी राजस्थान की एक विशेष जाती है जो साहित्य सृजन करने का काम करती है ।
यह डिंगल साहित्य ही "#मारवाड़ी" गीतों के रूप में सृजित हुआ है।
😊
जालौर के उदोतन सूरी ने आठवीं सदी के ग्रंथ #कुवलयमाला में मरुभाषा का सर्वप्रथम प्रयोग किया !
अकबर के समय अबुलफ़जल ने आईने अकबरी में "मारवाड़ी" का ज़िक्र किया था ।
मारवाड़ी भाषा शुद्ध रूप से तो जोधपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में ही बोली जाती है ।
मारवाड़ी के प्रमुख साहित्यकार
कृपाराम खेड़िया ने राजैरा सौरठा या दोहा लिखे थे ।
इसी तरह---
वेलीकृस्न रुक्मिणी री की रचना पृथ्वीराज राठौर जो कि बीकानेर के थे पर गागरौन झालावाड़ में की ।
😊
लक्ष्मी कुमारी चुण्डावत को कौन नहीं जानता जो "मूमल" ग्रंथ की रचनाकार हैं ।
:😊आओ अब बताता हूँ आपको पूर्वी राजस्थानी के बारे में जिसे #पिंगल के नाम से जाना जाता है ।
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पिंगल साहित्य को पूर्वी साहित्य भी कहते हैं इसे #भाट साहित्य के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसका सृजन भाट जाति के लोगों ने किया-----
यही हमारी #ब्रजभाषा है जो छंदों के रूप में संकलित की गई है -- सूरदास, रहीम, रसखान,केशव आदि प्राचीन कवि हुए हैं .....😊
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तहेदिल से आपका स्वागत करते हैं आप पढ़कर देखिए सायद कुछ उपयोगी जानकारी मिल जाए...😊
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