Saturday, February 29, 2020

भाव

भक्ति में शबरी हो जाना वात्सल्य में सूर
प्रेम बाबरी मीरा बनकर सबकुछ जाना भूल
राधा का अनुराग अनूठा विरह सहित अनुकूल
मन मंदिर तन तीर्थ बनाकर जाना ईश्वर मूल !
कविताएं कुण्ठित होती तो क्या मन के भाव दिखाई देते ?
पढ़कर सुनकर पाठक श्रोता फ़िर न ऐसे मुग्ध हो जाता !
अगर कवि पूर्वाग्रह करता तो क्या कोई ग्रंथ बनाता ?
इतिहासों के अमिट फ़लक पर फ़िर ना वह अंकित हो पाता !

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भावों की मुट्ठी।

 हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...