अनबूझ पहेलियों में उलझा जीवन
बूझते बुझाते ख़प जाता है !
कभी ख़ुद को समझाते कभी ख़ुद को समझते
सबकी कहानी एक जैसी लिख जाता है
परिग्रह करते कराते भुनाता निग्रह को
ये परिंदा तन्हा मुसाफ़िर सा लौट जाता है !
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हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...
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