Tuesday, February 18, 2020

बचपन (जाने कहाँ गए वो दिन )

रोना और मचलना दिनभर
खेल कूद में व्यस्त रहे
कहाँ गए वो दिन बचपन के ?
कितने जिनमें मस्त रहे !

ऊंच नीच का भेद न जाना
सबके साथ प्रेम से खाना
हम हँसने के अभ्यस्त रहे
कहाँ गए वो दिन बचपन के ?
कितने जिनमें मस्त रहे !

सीमा सरहद का भान नही
मन में कोई अभिमान नही
छल कपट हमेसा पस्त रहे
कहाँ गए वो दिन बचपन के ?
जिनमें कितने मस्त रहे !

लड़ते और झगड़ते भी थे
रखते नही कोई भी वैर
पल भर में सब भूल भाल कर
अपने फ़िर हो जाते ग़ैर
दम्भ द्वेष पाखण्ड नही था
भोले भाले भक्त रहे
कहाँ गए वो दिन बचपन के ?
जिनमें कितने मस्त रहे !
बच्चों की किलकारी से जो आँगन चहका रहता है
मेरा ये अनुभव है यारो भगवान वहीं पर रहता है ।
स्वप्न सलोने पापा देखें माँ ममता बरसाती है
ताई चाची दादी दादू फूले नहीं समाते है !
और भीनी सी ख़ुशबू से मन सबका बहका रहता है
बच्चों की किलकारी से जो आँगन चहका रहता है !

तुतलाते तुतलाते हम भी फ़िर से बचपन जी लेते है
छूट गया जो रस जीवन का फ़िर से हम पी लेते है !
घुटने के बल भी होकर हम अपनी अकड़ भूलते है
बाहें फ़ैलाकर हँसते हँसते हम फ़िर से जी लेते है !
यादों के झुरमुट से ख़ुद का बचपन आँखों में आता है
मीठी सी मुस्कान लबों पर और मन महका रहता है
बच्चों की किलकारी से जो आँगन चहका रहता है
मेरा ये अनुभव है यारो भगवान वहीं पर रहता है !
चालाकी के इस दौर में
मैं मासूमियत सहेजना चाहता हूं
ताकि बड़े होने के साथ
बचा रहे थोड़ा सा बचपन
आने वाले बच्चों के लिए !

तकनीकी के इस दौर में
सबको स्मार्ट बच्चों की चाहत है
ताकि करते रहें अपडेट उन्हें भी
वक़्त के साथ नई तकनीकी से
चुका कर क़ीमत मासूमियत की
जीवन को चलाएं यंत्रवत !
मैं सहेजना चाहते हूँ
जीवन के वो पल जो खो गए है
इस आधुनिकता के जंगल में
आने वाले जीवन के लिए
ताकि कह न सकें कभी उदासी से
जाने कहाँ गए वो दिन
बचपन के !

1 comment:

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 हम भावों की मुट्ठी केवल अनुभावों के हित खोलेंगे। अपनी चौखट के अंदर से आँखों आँखों में बोलेंगे। ना लांघे प्रेम देहरी को! बेशक़ दरवाज़े खोलेंगे...